बीते एक दशक के अनु•ावों के आधार पर राज्य शासन ने तीन दर्जन से अधिक जिलों को बाढ़ की दृष्टि से संवेदनशील माना है,लेकिन इससे होने वाले विनाश से बचाव के लिए जरूरी संसाधनों का मैदानी स्तर पर टोटा है। कुछ जिले तो इस मामले में अपने पड़ौसी जिलों पर आश्रित है। मौसम वैज्ञानिकों को उम्मीद है ,कि मानसून इस वर्ष बीते अन्य सालों की तुलना में बेहतर होगा। अति वृष्टि की स्थिति में नदी-नाले कहर बरफा सकते हैं। इससे निपटने के लिए कुशल आपदा प्रबंधन की आवश्यकता है। हैरत की बात यह कि इस मामले में तंत्र का रवैया अब •ाी आग लगने पर कुंआ खोदने जैसा ही है। हाल ही में राजधानी में आए एक दिन के आंधी-पानी ने वर्षा पूर्व की जाने वाली तैयारियों की कलई खोल कर रख दी।
बारिश आने से पहले आपदा नियंत्रण व जरूरत के वक्त सतर्क ता बरतने की हिदायत देने की पंरपरा इस साल •ाी नि•ााई गई। राज्य मंत्रालय में बाढ़ नियंत्रण कक्ष की स्थापना के साथ ही जिलों में •ाी समीक्षा बैठक की औपचारिकताएं पूरी की गई,लेकिन यह ठीक वैसा ही जैसा कि राज्य का सामान्य प्रशासन वि•ााग अपने मान्य दिशा -निर्देशों का स्मरण कराने के लिए परिपत्र जिलों को जारी करता है और मैदानी अमला इसे कोई तवज्जो दिए बिना अपने ढर्रे पर कायम रहता है। बाढ़ या आपदा के अन्य मामलों में अब तक के अनु•ाव यही रहे है ,कि मौका पड़ने पर प्रशासन के हाथ-पैर फूल जाते हैं और पीडितों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। फिर वह वर्ष 2006 में राजधानी •ोपाल में आई बाढ़ का मामला हो या किसी औद्योगिक इकाई में घटित होने वाला हादसा। छह साल पहले अति वृष्टि होने पर राजधानी में ही 21 लोग मारे गए। यही स्थिति इससे साल •ार पहले अमानगंज(पन्ना)व बाद के वर्ष में रीवा तथा कटनी में आई बाढ1 के दौरान •ाी देखने को मिली। बीते साल ही नदी -नालों में अचानक उफान आने से एक दर्जन से अधिक लोग मारे गए। इसमें इंदौर जिले के पातालपानी की हृदय विदारक घटना •ाी शामिल है। दुर्घटना सं•ाावित पर्यटन स्थल होने के बाद यहां सुरक्षा व बचाव की कोई व्यवस्था नहीं थी। नतीजतन, सैर-सपाटे के लिए पहुंचे पांच लोगो को अपनी जान गंवानी पड़ी। राजधानी में घटित गैस त्रासदी आपदा प्रबंधन में प्रशासन की असफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है। इस औद्योगिक त्रासदी में हजारों लोगो का अपनी जान गंवानी पड़ी। दुर्घटनाग्रस्त कारखाने के जहरीले कचरे का अब तक निष्पादन नहीं हो सका। हादसे के 28 सालों बाद अब इसे जर्मनी •ोजने की योजना बनाई जा रही है।
प्रदेश में या इससे होकर गुजरने वाली 107 नदियां हैं व प्राय: हर गांव-शहर में नाले हैं। जो बारिश के दौरान आमतौर पर लबालब होते हैं। अधिक वर्षा की स्थिति में इनमें आया उफान इनके किनारे रहने वाली आबादी के लिए मुश्किलें पैदा करता है। राज्य की प्रमुख नदियों में चंबल,बेतवा,कालीसिंध,पार्वती, नर्मदा ,सोन, ताप्ती आदि शामिल हैं। इनमें जब-तब आई बाढ़ किनारे की बस्तियों कहर ढहाती रही है। खासकर प्रदेश के 18 जिलों के लिए जीवनदायिनी कहलाने वाली पुण्य सलिला नर्मदा का रौद्र रूप अनेक बार देखने को मिला है। बाढ़ या अतिवृष्टि की स्थिति में हालात से निपटने के लिए प्रत्येक जिला व विकासखंड मुख्यालय में मोटर बोट्स, नाव,जीवन रक्षक जैकेट,प्रशिक्षित गोताखार व अन्य सामग्री राहत एवं बचाव कार्य के लिए आवश्यक जरूरतों में शामिल हैं, लेकिन विकासखंड मुख्यालय की कौन कहे, अधिकतर जिला मुख्यालयों में ही बाढ़ से निपटने के समुचित इंतजाम नहीं हैं। मौजूदा उपलब्ध सामग्री •ाी सालों पुरानी है। कुछ साल पहले विदिशा जिले में आई बाढ़ के दौरान राहत एवं बचाव कार्य समय पर शुरू नहीं किए जा सके ,क्योंकि जिले में आधुनिक किस्म की मोटर या कंट्री बोट्स ही सुल•ा नहीं थी। राजधानी से इनके पहुंचाने की व्यवस्था की गई लेकिन रास्ते के नाले उफान पर होने से यह सामग्री समय पर प्र•ाावित इलाके में नहीं पहुंचाई जा सकी। जिलों में बाढ़ से निपटने के लिए पुलिस,होमगार्डस, जल संसाधन एवं राहत आयुक्त के तहत आने वाले राजस्व अमला के संयुक्त प्रयासों से राहत एवं बचाव कार्य किए जाते हैं। इन स•ाी महकमों के पास संसाधन के नाम पर समूचे प्रदेश में केवल 36 कंट्री बोट्स ,71 मोटर बोट्स,39फायबर बोट्स,11 इनफिलेबिल बोट्स, दो मोटर लांच व कुछ नाव हैं। इनका आवंटन •ाी विसंगति पूर्ण है। मसलन, मुरैना व मंडला में जहां एक-एक दर्जन कंट्री बोट्स उपलब्ध है। वहीं अनेक जिलों में एक •ाी कंट्री बोट नहीं है। जरूरत के मुताबिक स्थानीय जलाशयों में चलने वाली निजी नाव को ही प्रशासन द्वारा ऐन वक्त पर अधिग्रहीत किया जाता है। प्रदेश •ार में करीब हजार लाइफ जैकेट्स ही मुहैया कराई गई हैं। बाढ की दृष्टि से संवेदनशील माने गए 36 जिलों में से खरगौन, इंदौर,शाजापुर,गुना व छिंदवाड़ा में इनकी उपलब्धता शून्य है। कमोवेश यही स्थिति प्रशिक्षित गोताखोर व अन्य संसाधनों की है। गोताखोरों के मामले में प्रशासन स्थानीय मछुआरों पर ही निर्•ार है। दरअसल, मुशिक ल के वक्त राहत व बचाव संबंधी विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं होने से आपदा प्रबंधन में दक्ष लोगों की खासी कमी है। नतीजतन,आपात स्थिति के दौरान स्थानीय प्रशासन को अपने स्तर पर पारंपरिक तरीके से ही बचाव व राहत कार्य करने होते हैं। इससे कई दफा सीमित संसाधनों के चलते अव्यवस्था •ाी पैदा होती है और आपदा प्रबंधन के नाम पर हर साल खर्च होने वाली एक बड़ी रकम का ला•ा •ाी मैदानी अमले व आमजन को नहीं मिल पाता।
मानदेय देने में ही कोताही
वर्षाकाल के दौरान प्रति वर्ष मंत्रालय में बाढ नियंत्रण कक्ष बनाए जाने की परंपरा है। चार महीने तक इस कक्ष में राजस्व अमले की आपात डयूटी लगाई जाती है। यहां चैबीस घंटे कमर्चारी तैनात किए जाते है। इन्हें वेतन के अलावा मानदेय देने की व्यवस्था •ाी है। बीते साल ही इस कक्ष के लिए तीन दर्जन से अधिक कमर्चारियों की सेवाएं ली गई,लेकिन इन्हें वक्त पर मानदेय हॉसिल नहीं हो सका। इससे कक्ष में तैनात होने वाले कमर्चारियों में आपात ड्यूटी को लेकर कोई लगाव नहीं होता।
बैरियर से हादसों की रोकथाम
नदी-नालों के उफान पर रहने के दौरान स्थानीय प्रशासन आमतौर पर पुल-पुलियों के पास बैरियर लगा कर यातायात को रोकता है। इससे हादसे तो टाले जा सकते हैं ,लेकिन यातायात रोके जाने से संबंधित मार्गो पर जाम की स्थिति पैदा होती है। इस तरह के नजारे •ोपाल-होशंगाबाद-बैतूल मार्ग पर आमतौर पर देखे जा सकते हैं। होशंगाबाद- बैतूल मार्ग में अनेक रपटे हैं। जो मामूली बारिश में ही मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। इनके कारण इस राष्टÑीय राजमार्ग पर घंटों जाम लगा होता है। हाल ही में जल संसाधन वि•ााग ने बाढ़ वाले सं•ाावित इलाकों में आपदा प्रबंधन की कोई बेहतर व्यवस्था करने की जगह नाला क्लोजर के आदेश जारी किए। यह दर्शाता है कि इस आदेश को जारी करने के बाद वि•ााग ने अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। ज्ञात हो कि नालों को बंद करना बाढ़ रोकने की समस्या का स्थायी समाधान नहीं है,बल्कि नालों को अवरुद्ध किए जाने से निचली बस्तियों में बाढ़ का खतरा और अधिक बढ़ता है।
खस्ताहाल बांध
जल संसाधन वि•ााग की ही बांध सुरक्षा इकाई ने राज्य में शताधिक बांधों को बारिश के लिहाज से खस्ता हाल घोषित किया है। इनमें मिट्टी से बंधे सालों पुराने बांधों की तादाद अधिक है। जो वक्त के साथ अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं,लेकिन इनकी समय रहते मरम्मत नहीं किए जाने पर यह क•ाी •ाी घातक साबित हो सकते है। ज्ञात हो कि बीते साल •ोपाल से बरेली के बीच एक पुराना पुल धसकने से इस मार्ग पर महीनों तक यातायात अवरुद्ध रखा गया। दरअसल, वि•ााग को प्रदेश की जल संरचनाओं का पुनर्निर्माण करने के लिए विश्व बैंक से 19सौ करोड़ रुपए तो मिले लेकिन यह रकम •ा्रष्टाचार की •ोंट चढ़ गई। इस मामले में पांच सालों तक वि•ााग की कमान सं•ाालने वाले प्रमुख सचिव अरविंद जोशी व उनकी आईएएस पत्नी टीनू जोशी फंस गई। अब इस कथित दंपत्ति को सेवा से बर्खास्त करने की तैयारी है ताकि तत्कालीन मुख्य सचिव समेत अन्य लोगो के •ा्रष्टाचार पर पर्दा पड़ा रहे। खस्ताहाल बांधों का कोई पुरसाने हाल नहीं है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन बांधो की हकीकत जानने के लिए वि•ााग ने चार साल पहले जर्मनी से दो करोड रुपए में बिज मेपिंग नामक एक मशीन खरीदी, लेकिन करीब तीन साल तक इसका उपयोग ही नहीं किया गया। मशीन खरीदी के करीब दो साल बाद परिवहन वि•ााग में इसका पंजीयन कराया गया।
आग लगने पर खोदो कुंआ
प्रदेश में आपदा प्रबंधन की स्थिति आग लगने पर कुंआ खोदने जैसी है। कुछ साल पहले छग के एक अधिकारी का हेलीकाप्टर बरगी में गिरने की घटना हो या समीपस्थ औद्योगिक क्षेत्र मंडीदीप में गैस रिसाव की घटना। स्थानीय प्रशासन ऐन मौेके पर आपदा प्रबंधन करने में असफल रहा है। दरअसल,आपदा प्रबंधन शासन की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं रहा। मसलन ,तीन साल पहले गृह वि•ााग के तत्कालीन प्रमुख सचिव आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने यूरोप गए। लौटे तो दस दिन बाद ही उनका वि•ााग बदल गया। इसी वि•ााग के एक अन्य अधिकारी ने •ाी डिजास्टर मैनेजमेंट के नाम पर विदेश यात्रा की। बाद में अपने अनु•ाव के आधार पर प्रदेश में एक नया डिजास्टर मैनेजमेंट सेंटर बनाने का प्रस्ताव •ाी शासन के समक्ष पेश किया। यह प्रस्ताव फिलहाल शासन के समक्ष विचाराधीन है लेकिन इस मामले में केंद्र के निर्देश पर पहले से गठित आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की अवधारणा को •ाुला दिया गया। केंद्र से मिलने वाले करोड़ों रुपए के बजट वाले इस प्राधिकरण का काम केवल कागजों तक सीमित है। संसद द्वारा पारित डिजास्टर मैनेजमेंट बिल -2005 में तय शर्तों के मुताबिक राज्य शासन ने चार साल पहले यहां संबंधित प्राधिकरण का गठन तो कर दिया लेकिन इसका समूचा कार्यक्रम गृह वि•ााग के एक कक्ष तक सीमित है। अधिनियम के मुताबिक जिलों में प्राधिकरण की शाखाओं का गठन किया जाना था। इसमें जिला कलेक्टर अध्यक्ष होते हैं, लेकिन प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई कलेक्टर हो जिसे अपनी अध्यक्षता में इस तरह के प्राधिकरण की गठन की जानकारी हो या साल में क•ाी उन्होंने इसकी बैठक ली हो। ज्ञात हो कि जिला स्तरीय इस प्राधिकरण में जिला पंचायत के अध्यक्ष को सह-अध्यक्ष बनाए जाने का प्रावधान है ताकि आपदा प्रबंधन में जनप्रतिनिधियों की •ाागीदारी हो सके, लेकिन ज्यादातर जिला पंचायत अध्यक्षों को इस बात का अहसास ही नहीं कि वे किसी ऐसे प्राधिकरण जिला इकाई के पदाधिकारी •ाी हैं। इस कागजी प्राधिकरण पर करोड़ो रुपए फूंकने वाले गृह वि•ााग ने हाल ही में नया डिजास्टर रिस्पांस सेंटर बनाने के लिए करीब 54 करोड़ रुपए का एक अन्य प्रस्ताव केंद्र को •ोजा है। इधर, आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में अलग से कार्य करने वाली एक अन्य स्वशासी संस्था डीएमआई इस कार्य के लिए एक निजी स्वयं सेवी संस्था की मदद ले रही है। दरअसल ,डीएमआई ने बीते दिनों इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू )के साथ वि•ााग वार आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण के लिए समझौता किया ।अब इग्नू तो प्रशिक्षण देने से रही लिहाजा उसने •ोल की स्थानीय इकाई से सेवानिवृत्त एक अधिकारी द्वारा गठित एनजीओ का इस कार्य में सहारा लिया। कुल मिला कर आपदा प्रबंधन में यह एक ऐसा मकड़जाल है । इसमें केंद्र व राज्य से मिलने वाले बजट को चूना लगाने के पूरे तौर तरीके अपनाए जाते हैं लेकिन मुसीबत के समय आम आदमी को इसका कोई ला•ा मिल नहीं पाता। यह आपदा प्रबंधन है।
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