sponsor

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

आसान नहीं राजनीति की डगर


 नौकरी छोड़कर तत्काल राजनीति की राह पकड़ना अब अफसरों के लिए आसान नहीं होगा। चुनाव आयोग की पहल पर केंद्र सरकार का कार्मिक मंत्रालय अब इस दिशा में कुछ कड़े नियम बनाने जा रहा है। लेकिन राजनीति में जाने के लिए लालायित अफसर इस अड़ंगेबाजी से खुश नही हैं। 
 गत दिनों  संपन्न पांच राज्यों की  विधानसभा चुनावों में टिकट पाने वाले रिटायर्ड अफसरों की तादाद देख पहले से ही इस मामले में आशंकित चुनाव आयोग के कान खड़े हो गए। इस पुनरावृत्ति को रोकने आयोग ने हाल ही में केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय को प्रस्ताव भेजा है। इसमें सरकारी नौकरी छोड़ राजनीति में भाग्य आजमाने वाले अफसरों के लिए कूलिंग अवधि यानि लोक सेवा से राजनैतिक जीवन में आने की अंतराल अवधि तय करने को कहा है।यही नहीं आयोग ने इस मामले में सरकार से उसका मत भी मांगा। बताया जाता है, कि आयोग के इस प्रस्ताव पर केंद्र सरकार का रुख भी अफसरों के मामले में सख्त है और वह शीघ्र ही इस बावत नए नियम बनाने पर विचार कर रही है। इसके तहत शासकीय सेवा में कार्यरत प्रथम श्रेणी अधिकारी सेवा से हटने के तत्काल बाद चुनाव में अपना भाग्य नहीं आजमा सकेंगे। अब तक इस तरह की पाबंदी केवल निजी सेवाओं के मामले में रही है। वह यह है कि शासकीय सेवा में रहे अधिकारी सरकारी नौकरी छोड़ने पर करीब एक साल तक किसी निजी फर्म या कंपनी में अपनी सेवाएं नहीं दे सकता। प्रशासन को व्यापारिक स्वार्थो से दूर रखने के इरादे से ही यह नियम बनाया गया था,हालांकि राज्य में ही इस नियम का माखौल उड़ाया जाता रहा है। मप्र हाउसिंग बोर्ड के एक अधिकारी ने बोर्ड से सेवानिवृत्त होते ही गेमन इंडिया में महत्वपूर्ण पद हॉसिल कर लिया। यह कंपनी राजधानी के न्यू मार्केट क्षेत्र में व्यावसायिक परिसर बना रही है। 

प्रदेश में यह आजमा चुके हैं अपना भाग्य
राज्य में भी ए श्रेणी के ऐसे अनेक अफसर हुए जिन्होंने अपनी कर्तव्यनिष्ठा से नाम कमाया तो कुछ  अपने दोस्ताना व मददगार स्वभाव के कारण से एक निश्चित दायरे में लोकप्रिय हुए। सेवानिवृत्ति के बाद अपने भविष्य को संवारने के लिए राजनीति इन्हें आसान रास्ता नजर आने लगी। कुछ अधिकारी  मदद के तौर पर किए गए अहसानों से राजनैतिक दलों को लुभाने  व चुनावी टिकट हॉलिस करने में कामयाब भी हुए लेकिन जब आम जन से रुबरू होने का अवसर आया तो हकीकत पता चल गई। इनमें भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी पन्नालाल, रुस्तम सिंह,आर के अग्निहोत्री,शकील रजा, भारतीय प्रशासनिक सेवा के सुशील चंद्र वर्मा(अब स्वर्गीय),डॉ भागीरथ प्रसाद, एम एम दाहिमा, अजय यादव  आदि नाम शामिल हैं। श्री सिंह को छोड़ दिया जाए तो शेष पहला चुनाव भी नहीं जीत पाए। वहीं स्व. वर्मा को अपवाद कहा जा सकता है। जो इक्का-दुक् का लोग चुनाव जीते वह भी प्रशासनिक कार्यशैली वाले  मिजाज के कारण अपने सहयोगियों व कार्यकर्त्ताओं से पटरी नहीं बैठा सके। ए ग्रुप के अधिकारियों के लिए कूलिंग अवधि तय करने की प्रक्रिया भविष्य की बात है लेकिन यदि ऐसा होता है तो इससे अनेक अफसरों क ी भावनाओं को गहरा आघात लगना स्वाभाविक हैं। भारतीय वन सेवा के एक अधिकारी तो ऐसे हैं जो स्वयं को वर्ष 2018 का मुख्यमंत्री कहते नहीं थकते। यही नहीं उन्होंने अपने पूरे मंत्रिमंडल क ा खाका भी खींच रखा है। यह अधिकारी 2017 में सेवानिवृत्त होंगे और केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की सिफारिश पर अमल किया तो उन्हें मुख्ममंत्री बनने के लिए 2023 तक इंतजार करना पड़ेगा।  
यह रहे अपवाद
 अजित जोगी: छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने अजित जोगी 1963 में भोपाल के मौलाना आजाद कॉलेज आॅफ टेक्नालॉजी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग क ी शिक्षा हॉसिल की। वर्ष 1968 में वह भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी बने। करीब तीन साल तक पुलिस सेवा में रहने के बाद वर्ष 1970 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए। करीब 16 साल तक शासकीय सेवा में रहने के बाद उन्होंने इससे त्याग पत्र देकर राजनीति में प्रवेश किया। यह वह दौर था तब राजनीति बहुत हद तक साफ-सुथरी हुआ करती थी । राजनेता सिद्धांतवादी व नैतिकता से परिपूर्ण थे। 
 नटवर सिंह: वर्ष 1953 में शासकीय सेवा में आए नटवर सिंह 31 सालों तक विभिन्न पदों पर रहे। वर्ष 1984 में राजस्थान की भरतपुर लोकसभा सीट से चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार में मंत्री बने। वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह सरकार में विदेश मंत्री बने। बाद में अनाज घोटाले में इनका नाम आने पर विवादित हुए और राजनैतिक सफर पर विराम लग गया। 
 यशवंत सिन्हा: यशवंत सिन्हा  वर्ष 1960 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में आए। करीब 24 साल शासकीय सेवा में रहे। इस दौरान उन्होंने मजिस्ट्रेट की भूमिका भी अदा की। वर्ष 1984 में शासकीय सेवा से त्यागपत्र देकर उन्होंने जनता पार्टी का दामन थामा और राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। वह राज्य सभा के सदस्य भी रहे और तत्कालीन राजग सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे।
 दरबारा सिंह: मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के कार्यकाल में पंजाब के  प्रमुख सचिव रहे दरबारा सिंह ने पंजाब में इसी साल हुए चुनाव में अपना भाग्य आजमाया। शिरोमणि अकाली दल के उम्मीदवार बने दरबारा सिंह ने विस चुनाव की अधिसूचना जारी होने से कुछ घंटे पहले ही शासकीय सेवा से इस्तीफा दिया था। चुनाव मैदान में उन्हें शिकस्त मिली । इस तरह वह न आईएएस रहे, न विधायक बन पाए। 
 पी एस गिल: पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे पी एस गिल अपनी कार्यशैली को लेकर खासी चर्चा में रहे हैं। बीते साल सितंबर में सेवानिवृत्ति के बाद वह उप मुख्यमंत्री सुखवीर सिंह बादल के विशेष सुरक्षा सलाहकार बने। इसी साल हुए चुनाव में अकाली दल ने उन्हें चुनाव मैदान में उतारा,लेकिन वह चुनाव नहीं जीत सके। 
 परगट सिंह:  खेल विभाग के निदेशक एवं पूर्व ओलंपित खिलाड़ी पगरट सिंह ने भी चुनाव कसे पहले नौकरी छोड़ कर अकाली दल के टिकट पर जालंधर छावनी से चुनाव लड़ा। अपनी खिलाड़ी वाली छवि का लाभ उन्हें मिला और वह जीत गए। 
 एस आर वले : चुनाव लड़ने वाले नौकरशाहों की सूची में लुधियाना के अतिरिक्त उपायुक्त एस आर वलेर का नाम भी शामिल है। वह पंजाब विधानसभा के पिछले चुनाव में अकाली दल के टिकट पर जगराओ से चुनाव लड़े लेकिन उनका विधायक बनने का स्वप्न पूरा नहीं हो सका। 
 पी एल पुनिया: उत्तर प्रदेश कॉडर के पूर्व आईएएस अधिकारी पी एल पुनिया ने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा। वह जीते और बाद में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष बने। 
 यहां रही भरमार: उत्तरप्रदेश में राजनैतिक महत्वकांक्षा पालने वाले अधिकारियों की कमी नहीं रही। वहां की पीस पार्टी में नौकरशाहों की हसरतों को नई हवा दी। इस पार्टी में बड़ी संख्या में पूर्व नौकर शाहों की भरमार रही। पूर्व आईपीएस बृजेन्द्र सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक यशपाल सिंह ,पूर्व आईपीएस एसपी आर्या, आरपी सिंह,पूर्व आईएएस रमाशंकर सिंह समेत दर्जन भर चिकित्सक व इंजीनियर इस दल में शामिल हुए। हांलाकि इनमें अधिकांश ऐसे हैं जिन्होंने शासकीय सेवा से हटने के दो से चार साल बाद राजनीति का दामन थामा। 
यह कहते है 

 अपने समय के मध्यप्रदेश के  नामचीन सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी पन्नालाल आयोग की राय से इत्तेफाक रखते हैं। वह कहते हैं,पारदर्शिता के लिए तो यह बेहद जरूरी है। शासकीय सेवा से निवृत्त होने पर व्यक्ति भविष्य के लिए अवसर की तलाश में होता है। यह बहुत हद तक स्वाभाविक है कि  व्यक्ति जहां व जिसके साथ काम करता है ,अवसर भी इसी के आसपास ही खोजे जाते हैं। राजनीति में आने पर लोकसेवक के रूप में उसकी श्रेणी भले बदले लेकिन नाते एक दम खत्म नहीं होते। इससे दुरुपयोग की संभावनाएं बढ़ती हैं। मैं तो कहता हूं, अन्य संवैधानिक नियुक्तियों के मामले में भी कूलिंग अवधि तय होना चाहिए। आयोग ने पहल जरूर की है,लेकिन मुझे लगता नहीं  कि यह नियम बन पाएं।   
 ......कई बार अधिकारियों को पद पर रहते गलतफहमी पैदा हो जाती है कि वह बेहद लोकप्रिय हैं,लेकिन मैदान में आने पर स्थिति कुछ अलग होती है। इस तरह के भ्रम को दूर करने के लिए शासकीय सेवा से राजनीति में आने के बीच साल-दो साल का अंतराल होना जरूरी है। इससे व्यक्ति को  परिस्थितियां समझने का अवसर भी मिल सकता है। अधिकारी को शासकीय सेवा में रहते हुए अंतिम समय तक निष्पक्ष रहना चाहिए । यही ब्यूरोक्रेसी का सिद्धांत भी है,लेकिन व्यक्ति की महत्वकांक्षाएं कई बार निष्पक्षता पर भारी पड़ती हैं। यही बजह है,कि शासकीय सेवा के बाद निजी कंपनियों की सेवा में आने के लिए एक अवधि तय की गई है। अब  चुनाव आयोग ने जो सोचा वह ठीक ही है। कूलिंग पीरियड, राजनीति के लिए भी तय होना चाहिए।  
    डॉ. भागीरथ प्रसादसेवानिवृत आइ ए एस मप 

..... एक लोक सेवक को इस तरह के दायरे में बांधना न तो लोकतांत्रिक है न ही वैधानिक। सरकार को इसका कारण बताना चाहिए कि क्यों एक शासकीय अधिकारी सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद चुनाव नहीं लड़ सकता? शासकीय सेवा में रहने वाला अधिकारी भी इस देश का नागरिक है और उसे भी तमाम लोक तांत्रिक अधिकार हैं। मेरे विचार से किसी शासकीय सेवक के लिए इस तरह की कूलिंग  अवधि  तय करना उचित नहीं है।
 एम एम दाहिमा सेवानिवृत आइ ए एस मप 

ads

Ditulis Oleh : Janprachar.com Hari: 6:18 am Kategori:

Entri Populer