रवि अवस्थी,भोपाल। मप्र सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के जन्मदिन 25 दिसंबर से एक दिन पहले को सुशासन दिवस के रूप में मनाया। इस मौके पर मंत्रालय के समक्ष आयोजित एक समारोह में सरकारी कर्मचारियों ने राज्य में सुशासन लाने का संकल्प लिया। दरअसल, सुशासन या सुराज की स्थापना भाजपानीत सरकारों का ध्येय वाक्य रहा है,इसके विपरीत मप्र सरकार केवल चंद विभागों की चुनिंदा सेवाओं को तय समय सीमा में मुहैया कराने की व्यवस्था कर राज्य में सुशासन लाने का दावा कर रही है? इसके विपरीत राज्य में चोरी,लूट ,बलात्कार, भ्रष्टाचार की घटनाएं चरम पर है। महिलाओं का घटते लिंगानुपात,बढ़ती जनसंख्या व कुपोषण नियंत्रण में राज्य सरकार लगातार असफल रही। प्रशासनिक कसावट के नाम पर अब तक किए गए उपाय भी निरर्थक साबित हुए। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक यानि केग की पिछली रिपोर्ट पर ही गौर किया जाए तो प्रशासनिक लापरवाही के चलते बीते वित्तीय साल में ही सरकार को करीब चार हजार करोड़ रुपए की चपत लगी। ऐसे में सुशासन के दावे को खोखला ही कहा जा सकता है।
आठ साल पहले राज्य पर करीब 27 हजार करोड़ का कर्ज था। वर्तमान में ‘हम’ लगभग एक लाख करोड़ के कर्ज में हैं। यह स्थिति तब है,जब दसवीं व ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अलावा केंद्र प्रवर्तित योजनाओं के तहत भी राज्य को पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में कई गुना ज्यादा धन मिला। वर्ष 2010-11 की तुलना में बीते वित्तीय साल में ही संघ करों में 25 फीसदी तक का इजाफा हुआ। वहीं भारत सरकार से अनुदान में 36 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस तरह बड़े पैमाने पर धनराशि सुलभ होने के बाद राज्य में गरीबों की संख्या में इजाफा हुआ। गरीबी की मुख्य बजह अशिक्षा व बेरोजगारी को माना गया है। बीते एक दशक में शिक्षा के निजीकरण के चलते इसकी गुणवत्ता में तो सुधार हुआ लेकिन साक्षरता दर अपेक्षा के अनुरुप हॉसिल नहीं हो सकी। दूसरी ओर जनसंख्या नियंत्रण में भी राज्य पिछड़ा। बीते एक दशक में ही राज्य की जनसंख्या में 20.30 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई जबकि देश के अन्य सामान्य राज्यों में यह दर 17.56 प्रतिशत रही। राज्य के ग्रामीण इलाकों में आय वितरण क ी असमानता राष्ट्रीय औसत की तुलना में कम आंकी गई। इससे बेरोजगारी बढ़ी। आलम यह है,कि चालू दशक में ही प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय सामान्य श्रेणी के राज्यों की तुलना में कमतर रही।
सामाजिक सेवाएं दरकिनार
पिछले कुछ सालों में राज्य शासन ने प्राय: अपने हर आम बजट में नए कर रोपित किए। इसके चलते राज्य में महंगाई और बढ़ी। पेट्रोलियम पदार्थ इसकी बानगी है। आए दिन बढ़ती कीमतों के बाद राज्य स्तर पर लगने वाले इनके करों में कोई कमी नहीं की गई बल्कि अन्य राज्यों की तुलना में यह कर अधिक हैं। इसी तरह पंजीयन,आबकारी व परिवहन करों में भी साल दर साल बढ़ोत्तरी हुई। आलम यह है, कि बीते साल ही राज्य में विक्रय,व्यापार इत्यादि करों में 33 प्रतिशत,आबकारी में 22 प्रतिशत, मुद्रांक एवं पंजीयन शुल्क में 41 प्रतिशत, वाहनों पर कर में 30 एवं भू-राजस्व में 101 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। इस तरह कर से मिलने वाले राजस्व में क रों की कुल भागीदारी करीब 48 प्रतिशत तक रही। मसलन, विक्रय,व्यापार से राज्य को वर्ष 2006-07 में जहां 5,261 करोड़ रुपए मिलते थे। बीते वित्तीय वर्ष में यह आंकड़ा 10,257 करोड़ रुपए रहा। इसी तरह आबकारी में 1547 से बढ़ कर 3603 करोड़, स्टाम्प एवं पंजीयन शुल्क में 1251 करोड़ से बढ़ कर 2514 करोड़, वाहनों पर 634 करोड़ से बढ़ कर 1198 करोड़ व भू-राजस्व पर 132 करोड़ से बढ़ कर 1198 करोड़ रुपए हो गया। कहने का आशय यह है,कि एक ओर विदेशी कर्ज,केन्द्र से मिलने वाली धनराशि के अलावा राज्य स्तर पर करारोपण से भी जम कर धन जुटाया गया,लेकिन इसकी तुलना में आम जन के कल्याण में योजनाबद्ध तरीके से इसका इस्तेमाल नहीं हो सका। बीते साल ही सामाजिक सेवाएं जैसे शिक्षा, खेलकूद, कला और संस्कृति,जलापूर्ति ,सफाई ,आवास व शहरी विकास में पंूजीगत व्यय में कमी रही। वहीं आर्थिक सेवाओं में बिजली व परिवहन के तहत पंूजीगत व्यय में कमी आई। इसी तरह राजस्व व्यय में सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण जैसे कामों में भी राजस्व व्यय कम रहा। दूसरी ओर बीते पांच सालों में प्रशासनिक व्यय में तेजी से इजाफा हुआ। वर्ष 2006-07 में वेतन एवं मजदूरी का बजट जहां 6337 करोड़ था। वहीं बीते साल यह 13हजार एक सौ करोड़ रहा। इसी तरह पेंशन भुगतान की राशि 2009-10 में जहां 3,077 करोड़ थी। वहीं बीते साल 3,767 करोड़ रुपए पेंशन में बांटे गए। बीते साल करीब 5 हजार करोड़ रुपए ब्याज के रूप में अदा करने पड़े। इस तरह राज्य के बजट व केंद्र प्रवर्तित योजनाओं या कर्ज का एक बड़ा हिस्सा स्थापना व गैर कल्याणकारी कामों पर अधिक खर्च हुआ। वहीं दूसरी ओर गए साल करीब 877 करोड़ रुपए का राजस्व वसूला नहीं जा सका। यह प्रशासनिक लापरवाही का द्योतक है। केग ने अपनी सिफारिश में कहा कि राज्य सरकार को कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में तो वृहत्तर राजकोषीय प्राथमिकमता प्रदान करना चाहिए। इस मामले में सामान्य श्रेणी के अन्य राज्यों का अनुसरण तो किया ही जा सकता है।
बजट लेने में आपाधापी
हर साल एक से अधिक बार अनुपूरक बजट लाना परंपरा का हिस्सा बन गया है। यह मूल बजट में दूरदृष्टि की कमी को परिलक्षित करता है। यह भी देखा गया, कि कुछ विभागों ने कोई ठोस योजना बनाए ही अनुपूरक बजट की मांग रख डाली। मसलन,वित्तीय साल 2010-11 में करीब साढ़े 14 हजार करोड़ रुपए का अनुपूरक प्रावधान किया गया। हैरत की बात यह कि साल के अंत में करीब सवा 12 हजार करोड़ रुपए खर्च ही नहीं किए जा सके। इनमें वित्त, आवास एवं पर्यावरण, लघु सिंचाई, उच्च शिक्षा एवं विधि विधायी कार्य विभाग शामिल हैं। यही नहीं अनुपूरक बजट में मिली ज्यादातर राशि वित्तीय साल के अंतिम महीने मार्च के आखिरी तिथियों में व्यय की गई। कुछ मामलों में तो यह रक म 39 से सौ फीसदी तक थी। कृषि राज्य की रीढ़ है। सरकार का जोर इसे लाभ का धंधा बनाने पर रहा है। इसकी जिम्मेदारी निवाहने वाला कृषि विभाग बजट का समय पर उपयोग न कर पाने के मामले में एक कदम आगे रहा। उसने राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत केंद्र से मिले बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च न हो पाने पर यह रकम सिविल मद में जमा होना दर्शा दी। जबकि बचत होने की स्थिति में नियमानुसार उसे यह रकम समर्पित करना चाहिए थी। अव्वल तो धनराशि के तत्काल उपयोग न होने की स्थिति में कोष से धन का निकालना ही गलत था। ऐसा करके विभाग के लेखाधिकारियों ने मप्र कोष संहिता खंड -1 के नियम 284 का खुले तौर पर उल्लंघन किया। बीते वित्तीय साल के ही बजट में करीब 115 करोड़ रुपए की अनेक प्रमुख शीर्ष मांगे गलत तरीके से वर्गीकृत की गई। दोषपूर्ण बजट नीतियों के चलते कुछ मामलों में जहां बजट राशि का पूरा उपयोग ही नहीं हो सका वहीं हड़बड़ी में कुछ जगह बचत से अधिक राशि समर्पित कर दी गई। मसलन, राष्ट्रीय परिवार सहायता योजना के तहत बचत महज सवा तीन करोड़ की थी और इसकी जगह साढेÞ छह करोड़ की रकम समर्पित कर दी गर्ई। इसी तरह की गफलत शिक्षाकर्मियों के वेतन बजट के मामले में हुई। बताया जाता है कि साल के अंत में करीब सवा आठ सौ करोड़ रुपए की बचत के विपरीत करीब 899 करोड़ रुपए विभागों ने वापस लौटाए । वर्ष 2010-11 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री राघव जी ने दावा किया था कि प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना लागू की जा रही है। पहले चरण में दस जिलों के लिए प्रस्तावित इस योजना के लिए बजट में 60 करोड़ की व्यवस्था की गई,लेकिन खर्च एक रुपया नहीं हुआ। नतीजतन, 47 करोड़ रुपए से अधिक राशि साल के आखिरी में लेप्स हो गई और बाकी रकम दीगर मदों में खर्च कर दी गई। वित्तीय कु प्रबंधन के यह तथ्य बताते हैं कि गड़बड़ी केवल मैदानी स्तर पर ही नहीं बल्कि विभागीय मुख्यालयों में भी हैं। बजट लेने व खर्च करने के मामले में वित्तीय नियंत्रण ,प्रारंभिक आंकलन व अनुवीक्षण(मॉनीटरिंग)जल्दबाजी में किए गए।
नहीं देते हिसाब
केंद्र सरकार की भी यह शिकायत रही है कि राज्य के अनेक विभाग केंद्र से मिलने वाली धनराशि का हिसाब यानि उपयोगिता प्रमाण पत्र समय पर नहीं देते। इसके चलते कई बार केंद्र से बजट की अगली किश्तें भी अटकती रहीं हैं। बीते तीन सालों की ही स्थिति का आंकलन किया जाए तो 42 हजार से अधिक मामलों में 16 हजार 286 करोड़ रुपए का हिसाब ही विभागों ने नहीं दिया। वित्तीय वर्ष 2008-09 तक लंबित ऐसे मामलों की संख्या करीब 30 हजार 622 थी। यह आंकड़ा दर्शाता है,कि बजट उपयोग के बाद इसका हिसाब नहीं देने का यह रोग पुराना है। इसमें कोई सुधार भी परिलक्षित नहीं हो रहा है। बीते वित्तीय साल में ही करीब साढ़े तीन हजार मामलों में विभागों ने उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं दिए। यही नहीकृषि, गृह निर्माण श्रम कल्याण व शहरी विकास समेत राज्य के 48 स्वायत्तशासी निकायों में से 45 ऐसे हैं जिन्होंने अपनी स्थापना के चार से 12 साल बीतने के बाद भी अपने एकाउंट की स्थिति का खुलासा नहीं किया। बीते वित्तीय साल के अंत तक करीब 46 करोड़ रुपए के गबन व हानियों के 3164 मामले सामने आए। इनमें महज एक प्रकरण न्यायालय तक पहुंचा। शेष मामले विभागीय स्तर पर निपटाए गए लेकिन लंबा समय गुजरने के बाद भी दोषियों से धन की रिकवरी नहीं हो सकी। बल्कि इन मामलों में उन्हें बचाने की कवायद निरंतर की जा रही है। मसलन, ग्रामीण विकास विभाग में पदस्थ एक उपायुक्त स्तर के अधिकारी ने नगरपालिका सीईओ रहते हुए करीब ढाई लाख रुपए का गबन किया। भोपाल एवं ग्वालियर संभागों के आयुक्तों ने अपनी विवेचना में आरोप को सही पाते हुए आरोपी से रकम वसूली के निर्देश दिए। यह जानकर हैरत होगी कि बीते तीन सालों से विभाग संभागायुक्तों की सिफारिशों को परीक्षण के नाम पर अटकाए हुए है। आरोपी को पदोन्नत कर विभाग मुख्यालय में पदस्थ कर दिया गया और वह यहां भी लगातार गड़बड़ी कर रहे हैं लेकिन अपर मुख्य सचिव व विभागीय आयुक्त का संरक्षण प्राप्त होने से दोषी के विरुद्ध अब तक कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। यहां तक कि विभागीय मंत्री द्वारा उपायुक्त के खिलाफ कार्रवाई की अनुशंसा किए जाने पर उन्हें भी गुमराह कर दिया गया।
बजट का निजी धन की तरह उपयोग
शासकीय धन को अपने निजी खातों में जमा रखने की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए वित्त विभाग ने वर्ष 2009 में एक आदेश जारी कर ऐसे अकाउंट समाप्त किए जाने के आदेश दिए थे,लेकिन विभागों ने वित्त के इस आदेश को नजरअंदाज कर दिया। पिछले वित्तीय साल में ही सूबे के 55 जिला कोषालयों में 8 सौ से अधिक निजी एकाउंट संचालित थे। इनमें दो हजार करोड़ से अधिक धनराशि जमा की गई। इनमें 315 खातों में साल के दौरान कोई लेनदेन ही नहीं किया गया। सूत्रों का दावा है ,कि निजी खातों में धन जमा रखने के पीछे बैंकों से मिलने वाला कमीशन एक मुख्य बजह है। अनेक बैंक अपना वित्तीय लक्ष्य हॉसिल करने के लिए बड़ी रकम जमा करने वाले अधिकारियों को कमीशन के रूप में एक बड़ी राशि अदा करते हैं। निजी खातों में धन जितने दिन अधिक रखा जाए कमीशन भी उतना ही भारी होता है। इसके चलते सरकारी धन से निजी एकाउंट खोलने वाले अधिकारी अपने खाते में जमा धन का उपयोग ही नहीं करते। इसका खामियाजा हितग्राहियों को भुगतना पड़ता। इसकी बानगी कुछ इस तरह है- संचालक पशु स्वास्थ्य एवं पशु चिकित्सा जैवकीय संस्थान महू के नाम से वर्ष 2006-07 में एक वैयक्तिक खाता खोल कर इसमें 12.37 करोड़ रुपए जमा किए गए। दो सालों के दौरान इस एकाउंट से जमा राशि में से महज चार फीसदी का उपयोग ही जनहित में किया गया। ईरी रेशम उत्पादन के लिए वर्ष 2005-07 में 6.80 करोड़ रुपए जमा किए गए लेकिन बीते साल के अंत तक करीब सवा दो करोड़ रुपए खर्च ही नहीं किए गए। इनके अलावा क रीब एक करोड़ से अधिक राशि अन्य मदों में बिना खर्च किए जमा रखी गई। जुलाई 2011 में आडिट दल ने पूछताछ की तो उन्हें बताया गया कि विभाग ने दो साल पहले धन वापसी की अनुमति के लिए प्रधान सचिव ग्रामोद्योग को पत्र लिखा था। इसका जवाब नहीं मिला। इसी तरह अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग बैतूल के सहायक आयुक्त ने बीते साल बजट से करीब 17 करोड़ रुपए आहरित किए। इसमें 15.83 करोड़ रुपए बैंक एकाउंट में और 32 लाख वैयक्तिक जमा लेखे में रखे। आडिट के दौरान लेनदेन में लाखों रुपए का अंतर पाया गया। आडिट दल ने विभाग को इसकी सूचना दी लेकिन सहायक आयुक्त के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसी तरह बड़वानी,धार, भीकनगांव,खंडवा व छतरपुर में भू-अर्जन अधिकारियों के वैयक्तिक जमा लेखे में करीब 162 करोड़ रुपए जमा रखे गए। आडिट के दौरान जमा लेखे के शेष में करीब साढ़े 22 करोड़ का अंतर पाया गया।
घपले-घोटालों की लंबी फेहरिस्त
मैदानी स्तर पर शासकीय बजट में होने वाले घपले-घोटालों व लापरवाही पूर्ण कार्यशैली से सरकार को चपत लगाने संबंधी मामलों की लंबी फेहरिस्त है। जांच एजेंसियों द्वारा डाले गए छापों के दौरान करोड़ों की अवैध संपत्ति का खुलासा होने से भी इस बात को बल मिला है कि सरकारी धन का उपयोग जनकल्याण की बजाए निजी हित में अधिक हुआ। घपले उजागर होने पर विभागीय स्तर पर ही इनका निराकरण करने,मामलों को दबाने से भ्रष्टाचार करने वालों के हौंसले बुलंद हुए। मसलन, बाणसागर परियोजना क ैचमेंट एरिया में बांध संधारण के लिए वन विभाग को वर्ष 2006-07 में चार करोड़ रुपए हॉसिल हुए। सतना एवं कटनी वन मंडल के तत्कालीन दर्जन भर अधिकारियों ने बजट की बंदरबांट कर दी। मौके पर कोई काम नहीं हुआ। दो बार की विभागीय जांच में आरोप सिद्ध पाए गए। जांच में यह तक तथ्य उजागर हुए कि दोषिंयों ने दुपहिया वाहनों से 11 लाख रुपए के पत्थर ढुलाई होना दर्शा दिया। एसटीडी पीसीओ से जीआई पाइपों को खरीदना बताया। मस्टर रोल में मजदूरों के फर्जी अंगूठे लगे। तमाम दस्तावेजी सबूत हॉसिल होने के बाद विभाग ने अब तक यह मामला राज्य आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो या दीगर जांच एजेंसी को नहीं सौंपा। मामला विभागीय मंत्री के समक्ष आने पर उन्होंने तीसरी बार विभागीय जांच के आदेश दे डाले। यानि विभागीय जांच घपलों को दबाने का जरिया बन गई। यह स्थिति प्राय: हर विभाग की है।
केग रिपोर्ट पर चर्चा से इंकार
सरकार की कमियां गिनाने वाली नियंत्रक महालेखाकार की रिपोर्ट्स को लेकर राज्य शासन भी गंभीर नहीं है। राज्य विधानसभा के बीते शीतकालीन सत्र में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने इस रिपोर्ट पर चर्चा कराने की मांग रखी,लेकिन अध्यक्ष ने यह कह कर उनकी बात को खारिज कर दिया कि इस काम के लिए सदन में लोक लेखा समिति गठित है और विपक्ष के ही एक सदस्य इसके सभापति हैं। अब यह समितियां कितनी प्रभावशाली है,इसकी बानगी कुछ इस तरह है-वर्र्ष 2003-04 में मप्र हस्तशिल्प एंव हथकरघा विकास निगम से संबंधित केग की रिपोर्ट पर उक्त समिति ने गत 29 मार्च को अपना प्रतिवेदन सदन में पेश किया। इसमें कुछ सामान्य सिफारिशें कर केग द्वारा उठाई गई आपत्तियों का पटाक्षेप कर दिया गया। कमोवेश यही स्थिति अन्य प्रतिवेदनों की है।
शुक्रवार, 4 जनवरी 2013
यह कैसा सुशासन?
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Ditulis Oleh : Janprachar.com Hari: 12:33 am Kategori:
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