
भोपाल। विश्व की भीषणतम गैस त्रासदी के मामले में राज्य शासन की लापरवाही एक बार फिर सामने आ गई है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से मिली फटकार और माह भर में यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे को नष्ट करने के लिए कार्ययोजना बनाने का आदेश होने के बाद सरकार अब हरकत में आई है। हैरत की बात यह है,कि दो माह पहले कचरा नष्ट करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा जर्मनी की एक कंपनी का नाम फाइनल करने के बाद राज्य शासन अब तक इस कंपनी से करार नहीं कर सकी न ही इस दिशा में आने वाली कानूनी बाधाओं को दूर करने की ही कोई पहल की गई। कोर्ट का आदेश होने के बाद अब रास्ते तलाशे जा रहे हैं1त्रासदी के लिए जमीन तैयार करने से लेकर पीड़ितों क ो राहत देने तक के मामले में बीते 28 सालों के दौरान राज्य शासन की लापरवाही लगातार सामने आती रही हैं। यहां तक कि हादसे के आरोपी को संरक्षित कर सुरक्षित बाहर निकालने का कलंक भी राज्य शासन के माथे पर लगा। बावजूद इसके सरकार अब तक इस मामले में संजीदा होने को राजी नहीं। हादसे के स्त्रोत यूनियन कार्बाइड संयंत्र में सालों से पड़े साढ़े तीन सौ टन जहरीले कचरे को नष्ट करने के लिए गत जून में भोपाल गैस त्रासदी पर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडलीय समूह (जी ओ एम) की बैठक हुई। इसमें तय हुआ कि जहरीले रासायनिक कचरे का निपटान जर्मनी में किया जाएगा। इस काम को जर्मनी की जीआईजेड कंपनी करेगी और इस पर लगभग 25 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इस सारे खर्च को केंद्र सरकार वहन करेगी। मंत्रिमंडलीय समिति के फै सले के बाद उक्त कंपनी से अनुबंध करने व दीगर कार्रवाई को अंजाम देने का जिम्मा राज्य शासन का था। हैरत की बात यह कि दो माह बीतने पर भी अनुबंध की प्रक्रिया को अंजाम नहीं दिया गया। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाया तो सरकार को कचरा निष्पादन के लिए तैयार हुई विदेशी कंपनी की याद आई। जबकि इससे पहले कचरे को नष्ट करने के लिए इसे कभी पीथमपुर तो कभी नागपुर या गुजरात भेजे जाने की योजना बनाई जाती रही है।
शर्त बनी बाधक
इधर,यूका का कचरा नष्ट करने के लिए राजी हुई उक्त जीआईजेड कंपनी ने भी स्थानीय स्तर पर हो रहे विरोध को देखते हुए अजीबो गरीब शर्त रखी है। जानकारों के मुताबिक कंपनी ने शर्त लगाई है कि कचरे को यूनियन कार्बाइड से लेकर जर्मनी के हेमबर्ग स्थित इंसीनीरेटर तक पहुंचाने के दौरान अगर कोई दुर्घटना होती है, तो इसकी जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की होगी। प्रदेश सरकार इस शर्त को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जर्मन कम्पनी की इन शर्तों पर अब नए सिरे से विचार किया जा रहा है। अभी भारत सरकार और कम्पनी के बीच इस बात को लेकर भी सहमति नहीं बनी है कि इस पूरे मामले में भारत का कानून लागू होगा या इंटरनेशनल लॉ लागू होगा। भारत का कानून लागू होने पर इस मसले से जुड़े किसी भी मामले में न्यायधिकार क्षेत्र भोपाल या दिल्ली में रहेगा, जबकि इंटरनेशन लॉ लागू होने पर ऐसा नहीं होगा। दरअसल, इस मामले को लेकर जीआईजेड का हेमबर्ग में ही विरोध शुरू हो गया है। पर्यावरण क्षेत्र में काम करने वाली वहां की एक स्वयं सेवी संस्था ने कंपनी के प्रस्ताव का विरोध किया है। इसे देखते हुए जीआईजेड अब असमंजस की स्थिति में है। जानकारों का मानना है कि यही बजह है कि उसने कचरे के परिवहन को लेकर ऐसी टेढ़ी शर्त रखी। जानकारों के अनुसार यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे के निष्पादन के मामले में भारत सरकार व जर्मनी सरकार को बेसेल संधि का पालन करना होगा। यह संधि वर्ष 1992 में लागू की गई थी। इसके तहत खतरनाक अपशिष्ठ पदार्थों के देश की सीमा पार निष्पादन संबंधी मार्गदर्शक सिद्घांत तय हैं। इनका पालन करना जरूरी है। बताया जाता है कि पर्यावरण सुरक्षा व स्थानीय स्तर पर हो रहे विरोध को देखते हुए जर्मनी सरकार यूनियन कार्बाइड कचरे के निपटारे के लिए बेसेल संधि के पालन पर जोर दे रही है। इसकी राह में कानूनी रूप से कई अड़चने हैं। अभी तक यह भी तय नहीं हो सका कि यूका का कचरा हवाई जहाज से भेजा जाए या पानी के जहाज से।
अब नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए:सुप्रीम कोर्ट
इधर, कचरे के निष्पादन में हीला हवाली को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए कहा कि केंद्र व राज्य सरकार को इस मामले में माह भर में कार्ययोजना बना कर छह माह में कचरे का निष्पादन करने की हिदायत दी। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि भोपाल गैस कांड का जहरीला कचरे का निपटारा छह माह के भीतर किया जाए। अब इस कचरे की वजह से भोपाल में किसी भी तरह से स्वास्थ्य या पर्यावरण के स्तर पर नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ने त्रासदी से संबंधित सभी लंबित मामले मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने के आदेश दिए । चीफ जस्टिस एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा, कि 'यूनियन कार्बाइड फैक्टरी में अब भी जहरीला कचरा पड़ा हुआ है। यह आसपास रहने वालों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जितनी जल्दी हो सके इसका वैज्ञानिक तरीके से निपटारा किया जाना चाहिए।' अदालत ने कहा कि 'हम केंद्र और राज्य सरकार को आदेश देते हैं कि इस संबंध में उचित कदम उठाएं। इस काम के लिए छह महीने की समय सीमा निर्धारित की जाती है।' कचरे के निपटारे के लिए अधिकार प्राप्त निगरानी समिति, सलाहकार समिति और नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ रिसर्च इन एनवायरमेंट हेल्थ ने अपनी सिफारिशें दी थीं। कोर्ट ने इसी आधार पर अगली कार्रवाई करने को कहा है। अदालत भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन की ओर से 1998 में दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी। न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त निगरानी समिति को भी भोपाल में रहकर काम करने को कहा है। समिति को राहत एवं पुनर्वास से जुड़े हुए सभी लंबित मामलों का निपटारा करना है। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को एक माह के भीतर बैठक करने को कहा है। इसमें प्रदेश के मुख्य सचिव और भारत सरकार के संबंधित विभाग के सचिव को शामिल होना होगा। बैठक में जहरीले कचरे के निपटान संबंधी कार्ययोजना को अंतिम रूप देने को कहा गया है।
इलाज नहीं मयस्सर
यूका संयंत्र से कचरे क ा निष्पादन का मामला हो या गैस पीड़ितों की कालोनियों में स्वच्छ जल प्रदाय क रने या त्रासदी का दंश भोग रहे पीड़ितों के इलाज का। त्रासदी के 28 साल बाद भी इस दिशा में कोई पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं किए जा सके। गैस पीड़ितों के इलाज के लिए स्थापित अस्पतालें भी दुर्दशा का शिकार है। यहां दवाएं है तो समुचित डॉक्टर नहीं। गैस पीड़ितों के उपचार के लिए गांधी मेडिकल कालेज से संबंद्ध कर बनाई गई कमला नेहरू गैस राहत राहत अस्पताल में ही डॉक्टरों की कमी है। यहां सीटी स्कैन की व्यवस्था नहीं है और यूरोलॉजी विभाग अब तक शुरू नहीं हो सका । जवाहरलाल नेहरू गैस राहत अस्पताल में भी सीटी स्कैन, डायलिसिस, इंडोस्कोपी, स्ट्रेस टेस्ट और पीएफटी जांच सुविधाओं का अभाव है। ब्लड बैंक है नही और मौजूदा एंबूलेंस खस्ता हालत में हैं। गंभीर रूप से पीड़ितों की जांच के लिए स्थापित रसूल अहमद सिद्दीकी पल्मोनरी मेडिसिन सेंटर में भी सीटी स्कैन, इंडोस्कोपी, स्ट्रेस टेस्ट,पीएफटी एवं बलगम जांच की सुविधा नदारद हैं। फेफड़े की जांच करने वाले डॉक्टरों की कमी है। रोगियों के मेडिकल जांच के लिए खरीदी गई मशीनें अब तक डिब्बों से बाहर नहीं निकलीं। कमोवेश यही स्थिति इंदिरा गांधी गैस राहत अस्पताल की है। गैस पीड़ित महिलाओं के लिए बनाए गए इस चिकित्सालय में बच्चों के लिए विशेष गहन चिकित्सा इकाईयां अब तक स्थापित नहीं की जा सकीं। स्त्री रोग विशेषज्ञों का टोटा है। ब्लड बैंक है लेकिन जरूरत पड़ने पर खून उपलब्ध नहीं होता और मरीजों के परिजनों को हमीदिया अस्पताल या निजी ब्लड बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं।
गैस पीड़ितों के उपचार के लिए सबसे बड़े व सर्व सुविधा युक्त भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) का विवादों से नाता रहा है। कभी प्रबंधन व चिकित्सकों का झगड़ा तो कभी कर्मचारियों का आंदोलन,अस्पताल की दास्तां बताने के लिए काफी है। इसके चलते यहां का अंकोलॉजी विभाग बंद है। कार्डियोलॉजी, गेस्ट्रोलॉजी, न्यूरोलॉजी व पल्मोनरी मेडिसिन में डॉक्टरों के 30 फीसदी पद खाली हैं। अस्पताल में लगाए गए अनेक महंगे उपकरण खराब हो गए हैं। इन्हें सुधरवाने या बदलवाने की जहमत नहीं उठाई जाती। अस्पताल का ताजा विवाद गैर गैस पीड़ितों के इलाज से मिलने वाली राशि के बंटवारे को लेकर है। इलाज करने वाले चिकित्सक अपना हिस्सा लिए बिना काम करने को राजी नहीं। बताया जाता है,कि यहां के चिकित्सकों व पैरामेडिकल स्टाफ को एक सितंबर 2010 से छठा वेतनमान का लाभ दिया गया । इसी तारीख से डॉक्टरों को दिया जा रहा प्राइवेट पेशेंट शेयर देना बंद कर दिया गया। बीएमएचआरसी के डॉक्टर व पैरामेडिकल स्टाफ इसका विरोध कर रहा है। इनका तर्क है कि छठा वेतनमान देने के आदेश 19 जुलाई 2012 को जारी हुए हैं। इस कारण सितंबर 2011 से 19 जुलाई 2012 के बीच इलाज कराने वाले मरीजों से हुई आय में से प्राइवेट पेशेंट शेयर का भुगतान डॉक्टरों को किया जाए। अस्पताल के कर्मचारी अब सामूहिक अवकाश पर जाने की चेतावनी दे रहे हैं। यह विवाद इतना बढ़ा कि इसे सुलझाने के लिए इंडियन कांउसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर ) के डिप्टी डायरेक्टर जनरल अरुण बरोका को भोपाल पहुंच कर अस्पताल कंसलटेंट के साथ बैठक करनी पड़ी। गैस राहत अस्पतालों की निगरानी के लिए साधिकार समिति गठित की गई थी ,लेकिन अस्पतालों में चिकित्सकों व कर्मचारियों की राजनीति व शासन के लचर रवैए से यह समिति निष्प्रभावी साबित हुई। सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के बाद यह समिति अब प्रभावशाली तरीके से काम कर सकेगी। समिति में डॉ. एचएच त्रिवेदी, अध्यक्ष, रिटायर्ड एचओडी मेडिसिन,गांधी मेडिकल कॉलेज ,डॉ. एससी तिवारी, संयोजक , संचालक चिकित्सा शिक्षा ,डॉ. एमएच कान्हारे , सदस्य रिटायर्ड, एचओडी, सर्जरी , गांधी मेडिकल कॉलेज, डॉ. निर्भय श्रीवास्तव, डीन, गांधी मेडिकल कॉलेज ,पूर्णेंदु शुक्ल , सदस्य, पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता। यह समिति भी गैस पीड़ितों के बीच काम कर रहे सामाजिक संगठनों की याचिका की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही सितंबर 2004 में बनी थी। राज्य शासन की ओर से अपने स्तर पर इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई। इस मामले में समिति के अध्यक्ष डॉ त्रिवेदी कहते हैं-समिति की अनुशंसाओं पर अमल करने से सरकार अब तक बचती रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश के बाद सरकार को अब हमारी सिफारिशों को मानना पड़ेगा। कोर्ट ने समिति के अधिकारों में भी बढ़ोत्तरी की है। संचालक चिकित्सा शिक्षा एवं समिति के संयोजक डॉ एस सी तिवारी का भी मानना है कि कोर्ट के नएआदेश से गैस राहत अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार आएगा। अब तक गैस राहत अस्पतालों के अधीक्षक समिति क ी अनुशंसाओं को तवज्जो नहीं देते थे,लेकिन अब वे ऐसा नहीं कर सकेंगे।
कोर्ट के निर्णय से सुधार की उम्मीद
बीएमएचआरसी और गैस राहत अस्पतालों की मॉनीटरिंग के लिए गठित समिति को अधिकार संपन्न करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इन अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार की उम्मीद बढ़ गई है। गैस पीड़ितों से जुड़े संगठनों का कहना है कि बेहतर ढंग से व्यवस्थाओं की निगरानी हो सकेगी। साथ ही राज्य सरकार को अब समिति की अनुशंसाएं भी मानना पड़ेगी। अब तक सरकार समिति की अनुशंसाओं पर ध्यान नहीं दे रही थी। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं कि गैस राहत अस्पतालों में मरीजों की सभी मेडिकल जांचें नहीं होतीं। ऐसा अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों और अच्छे उपकरणों की कमी होने के कारण हो रहा है। इन व्यवस्थाओं को सुधारने के लिए मॉनीटरिंग समिति नियमित राज्य सरकार को चिट्ठी लिख रही है। बावजूद इसके भोपाल गैस त्रासदी, राहत एवं पुनर्वास विभाग के अधिकारी समस्याओं का निराकरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। इन्हीं समस्याओं को लेकर संगठन ने गैस पीड़ितों के बीच काम करने वाले अन्य संगठनों के साथ मिलकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उन्होंने बताया कि सुनवाई के बाद कोर्ट ने मॉनीटरिंग कमेटी के अधिकार बढ़ा दिए हैं। साथ ही कमेटी के निर्देशों का पालन सरकार के लिए बाध्यकारी कर दिया है। इस कारण अब गैस राहत अस्पतालों के अलावा बीएमएचआरसी की स्वास्थ्य सेवाएं सुधरने की उम्मीद बंध गई है। श्री जब्बार कहते हैं -मैंने हाल ही में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिख कर गैस राहत अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार लाने व इनकी निगरानी के लिए गठित समिति की सिफारिशों पर अमल करने का आग्रह किया है। उम्मीद है,सरकार का रवैया बदलेगा।
रवि अवस्थी
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