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मंगलवार, 7 अगस्त 2012

अपने घर में भी है ‘रोटी’




जीवन की सांझ में बुजुर्गों की पीड़ा
 अपने घर में भी है ‘रोटी’
 इंदौर निवासी इंदर जैन ने परिवार के मासिक खर्च में कटौती कर   दोनों बेटों को उच्च शिक्षा दिलाई। सोचा था, बेटे पढ़-लिख कर बुढ़ापे का सहारा बनेंगे,लेकिन यह उम्मीद बेमानी साबित हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद दोनो बेटो में से एक को विदेश में तो दूसरे को मुंबई में नौकरी मिल गई। परदेश में उनका मन ऐसा रमां कि वे अपनी माटी को भूल गए। जैन दंपत्ति को अपने गृह नगर के अलावा और कोई जगह भाती नहीं।  नतीजतन,बेटों और माता-पिता के रास्ते सालों से अलग-अलग हैं। बुढापे में अकेलेपन की तकलीफ जैन दंपत्ति को भी आए दिन सालती है।
   यहां बात बुजुर्गों के अकेलेपन की है। इंदौर ही नहीं,प्रदेश भर में ऐसे बुजुर्गो की तादाद काफी है, जो एकांकीपन का शिकार हैं । इनके लिए यह अकेलापन किसी सजा से कम नहीं। खासकर जब एकांकीपन स्थायी रूप अख्तियार कर ले। कहते हैं-औलाद की पहचान बुढ़ापे में ही होती है। यही एक ऐसी अवस्था है ,जब व्यक्ति को  सहारे की आवश्यकता अधिक होती है। जरूरत के वक्त जब अपने ही नजदीक न हों तो संताप बढ़ना स्वभाविक है। अजीविका के लिए  ‘परदेश’ जाना गलत नहीं है लेकिन वहां जाकर अपनी माटी व अपनों को भूल जाना तकलीफ दायक होता है। स्थानीय अरेरा कालोनी निवासी श्रीमती आशा रानी की तकलीफ भी कुछ इसी तरह की है। श्री जैन की तरह श्रीमती आशा के भी दो संताने हैं। बेटी विवाह के बाद ससुराल की हो गई। बेटा विदेश में है। पति के जीवित रहने तक संतानों के दूर होने की कमी उतनी नहीं खलती थी जितनी आज। मां विदेश जा नहीं सकती और बेटे को यहां लौटने में अपना भविष्य अंधकार मय नजर आता है। नतीजतन,माँ-बेटे के बीच बातचीत का बस टेलीफोन ही एक सहारा है। अशोका गार्डन निवासी केशव गुप्ता क ा एक ही बेटा है। इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने के बाद पूना में उसे जॉब मिला। नौकरी मिलते ही बेटे ने अपना घर भी वहीं बसा लिया। गुप्ता दंपत्ति ने अपने गांठ की बची रकम भी बेटे की खुशी पर न्यौछावर कर दी और बुढापे में अब एक-एक पैसे को मोहताज हैं।  बरखेड़ी निवासी चंद्रकांता तिवारी एक बेटा व एक बेटी की मां है। रक्षाबंधन के मौके पर बेंगलुरू में नौकरी कर रही अपनी बेटी के  घर आने का उन्हें काफी इंतजार रहा। लेकिन  बेटी ने दो टूक जवाब दे डाला। व्हाट रक्षाबंधन ममा...,हियर इज नो सेलीब्रेशन। नो हॉली डे ,एट आल...। बेटी की बात सुन मां ने  दिल पर पत्थर रख किसी तरह खुद को समझाया। छोटे परिवारों की अवधारणा वाले समाज में परिजनों के साथ तीज-त्योहार मनाना भी जैसे बीते वक्त की बात हो कर रह गई। शहरी वृद्धजनों के लिए एकांकीपन एक बहुत बड़ी समस्या है। इससे तंग आकर कुछ लोग वृद्धाश्रमों की शरण लेते हैं,लेकिन ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर बुजुर्गो की तकलीफ अलग है। वे अपनों की उपेक्षा व हिंसा के  शिकार हैं।
 वित्तीय रूप से दूसरों पर निर्भर
वृद्धों के लिए काम करने वाली संस्था हेल्पेज इंडिया द्वारा किए गए सर्वेक्षण के  मुताबिक,देश  में 80 वर्ष से अधिक आयु के 72 प्रतिशत बुजुर्ग वित्तीय रूप से दूसरों पर निर्भर हैं। करीब 50 फीसदी का स्वास्थ्य प्राय: खराब या बेहद खराब रहता है। उनकी सबसे बड़ी जरूरत मुफ्त इलाज है। संस्था ने देश के 8 बड़े शहरों के 80 से अधिक आयु के 833 वृद्धों के बीच सर्वे कर यह निष्कर्ष निकाला। सर्वेक्षण में उक्त आयु वर्ग के 416 पुरूष तथा 417 महिलाओं को नमूने के तौर पर लिया गया था। सर्वेक्षण में कई चौकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। मसलन, भारत में 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के 80 लाख बुजुर्ग रहते है जिनसे 20 लाख 22 हजार 300 सौ 45 शहरी क्षेत्र में निवास करते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे के मुताबिक इन बुजुर्गों में 63 फीसदी लोग निरक्षर हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि बुजुर्गो के लिए अकेलापन एक बड़ी समस्या है। माना जाता है कि इस साल  के अंत तक विकासशील दुनिया में ऐसे वृद्धों की संख्या विश्व के कुल बुजुर्गों की संख्या का करीब 70 से 72 प्रतिशत होगी जो 2001 में 60 फीसदी थी। बढ़ती उम्र में बुजुर्गो को सर्वाधिक परेशान करने वाली समस्या स्वास्थ्य की है। प्राय: उनके आर्थिक स्त्रोतों पर इसी का प्रभाव ज्यादा बुरा पड़ता है। वृद्धों से संबंधित 1991 में बनी राष्ट्रीय नीति पर उनके स्वास्थ्य-सुविधाएँ उपलब्ध कराने को प्राथमिकता दी गई थी। संस्था ने उनके आर्थिक मामलों के अलावा उनके लिए बनाई गई स्वास्थ्य योजनाओं, बीमा आदि पर भी सर्वेक्षण में ध्यान दिया है। उक्त सर्वेक्षण जितना मात्रात्मक था, उतना ही गुणात्मक भी था। वृद्धों के बीच बातचीत पर आधारित है, इसमें 416 पुरूष तथा 417 महिलाओं ने अपनी परेशानियाँ खुलकर सामने रखीं। देश के कुल 8 बड़े शहरों दिल्ली (एनसीआर) मुम्बई, अहमदाबाद, कोलकाता, भोपाल, चेन्नई, पटना तथा हैदराबाद के बुजुर्ग इसके केन्द्र में थे। सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि 57 प्रतिशत वृद्ध विधवा अथवा विधुर हैं। दो तिहाई से अधिक आर्थिक रूप से किसी और पर निर्भर हैं। सर्वाधिक  79 फीसदी बुजुर्गो के पालक उनके पुत्र हैं। बाकी के पालक अथवा आय के स्त्रोत अलग हैं। 36 प्रतिशत वृद्धों की मासिक आय ढाई हजार है, जबकि मात्र 12 फीसदी बुजुर्ग आर्थिक कामों में लगे हैं। 70 फीसदी बुजुर्गो के नाम अपनी कोई सम्पत्ति भी नहीं है।  ज्यादातर बुजुर्ग अनपढ़ हैं तथा उनकी आय का मुख्य स्त्रोत उनके बच्चे हैं। दिल्ली में सर्वाधिक 91 प्रतिशत बुजुर्ग स्वयं के घरों में रहते हैं जबकि मुम्बई में यह प्रतिशत 79 तथा पटना में 78 है। सबसे कम कोलकाता में मात्र 14 प्रतिशत बुजुर्ग स्वयं घर के मालिक हैं। मुम्बई में अत्यधिक बुजुर्गों का सर्वाधिक प्रतिशत (28) का खुद का कोई आर्थिक स्त्रोत नहीं है। दूसरा स्थान दिल्ली 23 प्रतिशत है। दिल्ली के 60 प्रतिशत बुजुर्ग अपने परिजनों पर निर्भर हैं। 52 प्रतिशत से अधिक बुजुर्ग गंभीर अथवा अधिक गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं की चपेट में हैं।  ज्यादातर वृद्ध अपने स्वास्थ्य मामलों को लेकर अधिक परेशान होते हैं।  यह देखा गया कि   बुजुर्गो के बीच प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र लोकप्रिय नहीं हुए हैं, ये ज्यादातर निजी अस्पतालों अथवा बड़े सरकारी अस्पतालों की ओर रूख करते हैं। इसके अलावा यह भी तथ्य सामने आया कि 80 प्रतिशत वृद्धों को सामुदायिक रूप से कोई राहत नहीं है, ऐसा ये बुजुर्ग खुद महसूस करते हैं। सरकारी योजनाओं एवं स्वास्थ्य बीमा के प्रति वृद्धों की जागरूकता का स्तर भी बहुत निम्न है। 12 फीसदी वृद्ध स्वास्थ्य योजनाओं तथा 23 फीसदी बीमा के प्रति सतर्क पाये गये। जबकि मात्र 5 प्रतिशत ही बीमित हैं। पांच प्रतिशत वृद्ध राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना से जुड़े हैं।  प्रदेश के नगरीय क्षेत्रों में रहने वाले बुजुर्गों की स्थिति और अधिक खराब है। बुजुर्गों की प्रताड़ना के मामले में राजधानी भोपाल को सबसे आगे माना गया है। वहीं विकसित राज्य कहे जाने वाले गुजरात की राजधानी अहमदाबाद इस मामले में चौथे स्थान पर है।
   नहीं बन सके स्मार्ट कार्ड
 बुजुर्गो में बढ़ता एकांकी पन व उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को  देखते हुए दो साल पहले स्थानीय प्रशासन  ने ऐसे वृद्धों को  स्मार्ट कार्ड बना कर देने का निर्णय लिया था। यह कार्ड एक तरह से पहचान पत्र होता। इस कार्ड में बुजुर्गो की व्यक्तिगत जानकारियां शामिल होती। तत्कालीन संभागायुक्त मनोज श्रीवास्तव की पहल पर बनी इस योजना के तहत वृद्ध जन स्मार्ट कार्ड में14 बिंदुओं पर जानकारी एकत्रित की जानी थी। इसमें सीनियर सिटीजन का नाम, पता, आयु, जन्मतिथि, रक्त समूह, संपर्क नंबर, रुचि, स्वास्थ्य आदि जानकारियां शामिल किया जाना था। इस मामले में जिला कलेक्टरों को कहा गया कि वे इन परिचय पत्रों के आधार पर बुजुर्गो को विशेष सुविधाएं दिलाने का खाका तैयार करेंगे। मसलन,जिला प्रशासन यह तय करेगा कि बुजुर्गों को संग्रहालयों में प्रवेश टिकट व पास आधी दरों पर मिले। बस सहित अन्य परिवहन सेवाओं में विशेष छूट का लाभ उन्हें मिल सके। बुजुर्गो के कार्यक्रम के लिए सार्वजनिक भवन रियायती दर पर देने की सुविधा हो। इंश्योरेंस प्रीमियम पर डिस्काउंट, स्वास्थ्य संबंधी उपकरण एवं दवा में छूट, सुरक्षा संबंधी खाका तैयार किया जाए। इस योजना के तहत भोपाल-होशंगाबाद संभाग के सभी आठ जिलों में काम होना था,लेकिन अन्य कल्याण कारी योजनाओं की तरह यह योजना भी महज कागजी साबित हुई। संभागायुक्त के पद से हटते ही योजना को ठंडे बस्ते में डाल ,बुजुर्गों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया।
बस सम्मान की भूख
 कमोवेश यही स्थिति वृद्धजनों के  हितों की रक्षा के लिए बने भरण-पोषण तथा कल्याण अधिनियम -2007 की है। प्रशासन के पास पहुंचने वाली ज्यादातर शिकायतों का निराकरण करने की जगह उन्हें अकारण लंबित रखना या  फिर खानापूर्ति कर मामले को रफा-दफा करने में प्रशासन की रुचि अधिक है। अधिनियम का अधिक प्रचार-प्रसार नहीं होने से प्रशासन के पास पहुंचने वाली शिकायतों भी गिनी-चुनी हैं। मसलन, बीते एक साल में उक्त अधिनियम के तहत प्रदेश भर में महज 95 शिकायतें दर्ज की गई। इनमें 58 में शिकायत कर्त्ता वृद्धजनों के पक्ष में फैसला हुआ। शेष को निरस्त कर दिया गया। राजधानी भोपाल में ही इस दौरान 27 शिकायतें आई। इनमें से महज 7 में आदेश पारित हुआ जबकि शेष में समझौते का विकल्प अपना कर शिकायतों को निरस्त कर दिया गया। कहा जाता है कि इस तरह के समझौतों के पीछे प्राय: शिकायत कर्त्ता माता-पिता का ही अपनी शिकायत वापस लेना होता है। दरअसल, वृद्धजन  शिकायत तो करते हैं लेकिन सनुवाई के दौरान संतान के प्रति  प्रेम उमड़ने से वे अपने कदम वापस खींच लेते हैं। माता-पिता वित्तीय मदद से ज्यादा सम्मान के भूखे होते हैं। वे भूखे रह सकते हैं,लेकिन तिरस्कार उन्हें मंजूर नहीं। छावनी मंगलवारा निवासी एक वृद्ध महिला ने हाल ही में इलाके के अनुविभागीय अधिकारी को अपने प्रताड़ित होने की शिकायत की। सुनवाई हुई और बात भरण पोषण की बात आई तो महिला ने दोनों बेटों से किसी तरह की राशि लेने से इनकार कर दिया। महिला का कहना था- 'मुझे तो बस बेटों से सम्मान और प्रेम मिल जाए, यही काफी है। यह भी बात सामने आई कि कुछ  बुजुर्ग संतान की आर्थिक या पारिवारिक समस्या को समझे बिना उनसे बहुत कुछ पाने की आकांक्षा पाल लेते हैं। यह अति महत्वाकांक्षा भी कई बार उनके लिए दु:ख का कारण बनती है। यह बात  अकेलेपन के शिकार बुजुर्गों पर भी लागू होती है।  




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Ditulis Oleh : Janprachar.com Hari: 2:35 am Kategori:

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