राधा स्वामी सत्संग सभा से जुड़े प्रदेश के एक वनाधिकारी की सेवानिवृति के बाद भी राज्य सरकार हरदा जिले की बरारी इस्टेट पर हाथ डालने से कतरा रही है,जबकि हरदा जिले की टिमरनी के जंगल के एक बड़े भू-भाग पर सभा का बेजा कब्जा बदस्तूर जारी है। हरदा ही नहीं अन्य जिलों में भी अतिक्रमण हटाने के कार्रवाई लंबे समय से ठंडे बस्ते में है,जबकि सरकारी भूमि के कब्जाधारियों का पता लगाने के लिए राज्य सरकार ने एक समिति भी गठित की थी। इस समिति की रिपोर्ट को आए हुए ही तीन साल से अधिक वक्त बीत गया लेकिन कार्रवाई के नाम पर सरकार चुप्पी साधे हुए है।
राजस्व अर्जन के लिए एक ओर राज्य शासन नित नए उपाय अपना रही है। यहां तक कि आदिवासियों की जमीन को बेचने के अधिकार पर भी इस शर्त पर दे दिए गए कि जमीन की लागत का दस फीसदी शुल्क सरकारी खाते में जमा किया जाए। मंशा यही कि किसी तरह सरकार का राजस्व बढ़े तो दूसरी ओर प्रदेश में अतिक्रमित भूमि को खाली कराने के मामले में उदासीन रवैया अपनाया जा रहा है। दिखावे के लिए छह साल पहले गठित की मनोज श्रीवास्तव एकल समिति की दर्जन भर रिपोर्ट भी मंत्रालय में धूल खा रही हैं। इस समिति ने एक दर्जन से अधिक मामलों की अलग-अलग रिपोर्ट राज्य शासन को सौंपी थी। इसमें प्रमुख मामला हरदा जिले की टिमरनी तहसील के राजा बरारी इस्टेट का है।
बताया जाता है कि अंगे्रजों के शासनकाल में इस सभा ने करीब आठ हजार एकड़ वनभूमि अपने नाम करा ली थी। कालांतर में भी जमीन के करारनामे को लेकर वर्ष 1953 व1956 में कार्यवाही हुई लेकिन नया वन अधिनियम लागू होने के बाद यह भूमि अतिक्रमण की श्रेणी में आ गई। उक्त जांच समिति ने पाया कि कि सभा को जिस तरह की लीज मिली थी उसमें गैरवानिकी प्रयोग निहित थे लेकिन सभा जमीन के अधिकांश हिस्से का वानिकी उपयोग करती रही। हैरत की बात तो यह कि राजा बरारी इस्टेट के लिए कार्यआयोजना आज भी प्रदेश का वन विभाग बनाता है। यहां के जंगल की देखरेख,रखरखाव यहां तक कि लकड़ी की कटाई जिसे विभाग की भाषा में विदोहन कहा जाता है वह भी विभाग ही करता है ,लेकिन इससे होने वाली आय पर सभा का अधिकार है। ऐसे कारनामे केवल मध्यप्रदेश में ही संभव है। समिति ने अपनी जांच रिपोर्ट में सभा को दी गई लीज को निरस्त कर इसका कब्जा लिए जाने की सिफारिश भी की थी, लेकिन राज्य शासन की ओर से अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई।
दरअसल,हजारों एकड़ की उक्त जमीन पर काबिज सभा को प्रदेश के ही कुछ अधिकारियों का संरक्षण रहा है। प्रदेश के प्रधान वन संरक्षक रह चुके अनिल ओबेराय तो अपने सेवाकाल के दौरान भी खुले तौर पर इस सभा से जुड़े रहे और प्रत्येक शनिवार-रविवार को ग्वालियर वन वृत के दौरे के नाम पर सभा के मुख्यालय आगरा जा पहुंचते थे। यही नहीं उन्होंने तत्कालीन मुख्य सचिव को भी अपने प्रभाव में ले रखा था। इसके चलते उनके सेवा में रहते हुए राज्य सरकार राजा बरारी इस्टेट की जमीन को सभा से छीनने का प्रयास नहीं कर सकी। यह माना जा रहा था कि ओबेराय की सेवानिवृति के बाद इस दिशा में कोई कार्रवाई की जा सकती है,लेकिन ओबेराय की सेवानिवृति के बाद भी इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जाना सरकार की लचर कार्यशैली को उजागर करता है।
अतिक्रमण से बचाने घोषित किया राज्य संरक्षित
सवाल यह है कि जब सूबे में सालों से चल रहे जमीन के गोरखधंधे की परतें सामने आ चुकी हैं, तो सरकार दोषी अफसरों और जालसाजों को सलाखों के पीछे भेजने में इतनी देर क्यों लगा रही है, कहीं देरी के राजनीतिक मायने तो नहीं हैं? इधर,प्रदेश सरकार की कमजोरी भांप चुके भू-माफिया ने हरदा ही नहीं सूबे के अधिकतर वन क्षेत्र को सर्वाधिक निशाना बनाया। केन-बेतवा लिंक परियोजना के मामले में पन्ना वन अभ्यारण्य का बहाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है। दरअसल, जंगल में कब्जा करने पर राज्य सरकार कुछ बोलती नहीं और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय व महकमे के अधिकारियों को अतिक्रमण हटाने में कोई रुचि नहीं है। इसके चलते माफिया ने न केवल वन क्षेत्र पर कब्जा जमाया बल्कि इलाके के वन को भी साफ कर डाला।
प्रदेश में भू-माफिया अब भी हावी है। चंद साल पहले इसके खिलाफ अभियान भी शुरू किया गया,लेकिन माफिया को हावी होता देख सरकार दोबारा कोई बड़ा अभियान चलाने का साहस नहीं कर सकी। इसका लाभ माफिया ने उठाया और उसने पुरातात्विक महत्व के स्थलों को भी नहीं बख्शा। जगह-जगह बेजा कब्जा के चलते ही प्रदेश में पुरातात्विक महत्व के करीब दो दर्जन स्थानों को माह भर पहले ही राज्य संरक्षक स्मारक घोषित करना पड़ा। अतिक्रमण का यह रोग प्राय: हर जिले में है।
रायसेन में भी बेजा कब्जा
शहरी क्षेत्रों में बसी अवैध कालोनियों को समय-समय पर वैध करने की सरकार की नीति ने अतिक्रमणकारियों के हौंसले और बढ़ाए। आलम यह,कि छोटे-छोटे शहरों व कस्बों में भी अवैध कालोनियां आए दिन तैयार हो रही हैं। सिलवानी तहसील के आदिवासी बाहुल्य ग्राम चौका में सत्तारूढ दल से जुड़ी एक महिला नेत्री ने गांव की चरनोई भूमि पर कब्जा जमा लिया। गांव में इसका विरोध हुआ। तंग आए ग्रामीणों ने जनसुनवाई के दौरान जिले के जिम्मेदार अधिकारियों को ज्ञापन भी सौंपे लेकिन नतीजा सिफर रहा। ग्रामीणों के मुताबिक, पटवारी हल्का नं. 17 के खसरा नं. 73 की लगभग साढ़े तीन एकड़ यह भूमि अनधिकृत तौर पर कृषि भूमि में तब्दील हो चुकी है,लेकिन जिम्मेदार अफसर चुप्पी साधे हुए हैं। समीपस्थ रायसेन जिले में ही ऐसे बीसियों मामले हैं जब लोगो ने शासन का ध्यान सरकारी जमीन पर हो रहे अतिक्रमण की ओर आकर्षित किया लेकिन प्रशासनिक उदासीनता के चलते उन्हें निराश होना पड़ा।
रायसेन ही क्यों राजधानी वाले जिले में शासकीय भूमि पर बेजा कब्जा है। शहर में पाश कालोनी क्षेत्र कहे जाने वाला ईदगाह हिल्स का इलाका हो या कोलार,चूना भट्टी या फिर समीपस्थ लगे गांवों की कृषि भूमि। भूमाफिया ने बेखौफ शासकीय भूमि पर कब्जा कर कालोनी बसा दी। यहां तक कि खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों को भी नहीं बख्शा गया। नियम विरुद्ध निर्माण कार्य करने वालों व शासकीय जमीन को किसी अन्य मकसद से लीज पर लेकर उस पर अन्य कार्य करने वालों की तो यहां भरमार है। शहर से लगे कजलीखेड़ा ग्राम पंचायत में करीब 43 एकड़ सरकारी भूमि पर पंचायत ने पट्टे बांट कर बस्ती बसा दी। बीते माह जिला प्रशासन ने यहां के शताधिक मकानों को जमींदोज कर लोगों को तो उजाड़ा लेकिन पट्टे बांटने वाले जिम्मेदार सरपंच या दीगर लोगो के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।
यह मामला गत दिनों मुख्यमंत्री निवास में आयोजित महिला पंचायत में भी एक सेवानिवृत महिला अधिकारी उमा भार्गव ने उठाया। उन्होंने कहा,कि जब इस तरह की अवैध बस्तियां बस रहीं होती हैं तब शासन-प्रशासन क्या कर रहा होता है,लेकिन पंचायत में उनकी बात को अनसुना कर दिया गया। समीपस्थ सीहोर जिले की झालपीपली,लोहा पठार व इमलिया में पांच सौ एकड़ से अधिक शासकीय भूमि पर राजधानी के ही एक कथित रसूखदार कांग्रेसी नेता व इनके परिजनों का वर्षों से कब्जा है। राज्य विधानसभा में यह मामला बीसियों बार उठने के बाद राज्य शासन ने हर बार अतिक्रमण हटाने का आश्वासन तो दिया लेकिन समूची जमीन को वह अब तक अतिक्रमण मुक्त नहीं करा सकी। गत दिनों उक्त कांग्रेसी नेता के निधन के बाद से यह मामला और ठंडे बस्ते में चला गया है।
हर जिले में जारी है अतिक्रमण
मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्टस बताती हैं कि सरकारी जमीन की बंदरबांट का यह खेल प्रदेश के प्रमुख शहरों में बदस्तूर जारी है। भोपाल, ग्वालियर, धार, होशंगाबाद, हरदा और अशोक नगर जिलों में खरबों रुपए की जमीन कानून को धता बनाकर निजी हाथों में चली गई। प्रदेश के धार जिले के सरदारपुर कस्बे में मध्य प्रदेश के जमीन गोरखधंधे का सबसे दिलचस्प मामला सामने आया। इस मामले के बारे में मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट में लिखा गया, ‘यह अद्भुत’ प्रकरण है। इसमें एक नगर की लगभग संपूर्ण भूमि एक ही परिवार के हाथों आ गई। यह वह प्रकरण है इसमें पवित्र माही नदी, कब्रिस्तान, श्मशान, डाक बंगला, जेलखाना, शासकीय कन्याशाला, विजय स्तंभ, टीआई बंगला, कलेक्टर कोठी सहित कई सार्वजनिक जमीन पर पुराने पट्टों के आधार पर एक परिवार हक जमाता रहा है।
कलेक्टर पट्टों की प्रामाणिकता पर संदेह करने की बजाए दावेदार को जमीन का अधित्यजन (दान) करने का मौका देते रहे। रिपोर्ट के मुताबिक 1995 में कलेक्टर के एक गलत आदेश के जरिए 1471 बीघा जमीन नगर पालिका और मध्य प्रदेश शासन से लेकर निजी पक्षकार के हक में कर दी गई। बाद में एक अन्य कलेक्टर ने इस आदेश को गलत पाया और भूमि सरकार के अधीन लाने के लिए राजस्व मंडल (रेवेन्यू बोर्ड) से मामले पर दोबारा गौर करने की अनुमति मांगी। राजस्व मंडल ने पुवार्नुमति देने की जगह खुद ही विस्तृत आदेश देकर जमीन सरकार के स्वामित्व में लाने का आदेश पारित किया। यह आदेश हाइकोर्ट से खारिज हो गया और हाइकोर्ट ने पुनर्विलोकन (छानबीन) की पूवार्नुमति दी। रिपोर्ट के मुताबिक, तमाम कानूनी प्रक्रिया के बाद 5 जून, 2007 को कलेक्टर ने आदेश दिया जिसमें कुछ भूमि अधित्यजित कर शेष भूमि निजी पक्षकार को दे दी। मजे की बात यह है कि नदी, पहाड़, रास्ता और कब्रिस्तान जैसी जमीन छोड़ने के लिए भी कलेक्टर ने निजी पक्षकार को आदेश देने की बजाए समझाया कि वह जनहित में भूमि को छोड़ दें। रिपोर्ट में कलेक्टर के आदेश को पूरी तरह गैरकानूनी बताया गया, लेकिन किसी अफसर पर कार्रवाई की सिफारिश नहीं की गई।
भेल ने ही दबाई हजारों एकड़ जमीन
प्रदेश सरकार ने 27 नवंबर, 1957 को भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लि. (बीएचइएल) को 6,000 एकड़ से अधिक जमीन अवार्ड की। मनोज श्रीवास्तव समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यह जमीन भेल को एक कंपनी के तौर पर अवार्ड की गई।इस मामले में कोई औपचारिक ट्रांसफर डीड नहीं हुई। लिहाजा भेल प्रशासन या केंद्र सरकार को इस जमीन पर मालिकाना हक जताने का अधिकार नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया कि अधिग्रहण के बाद से अब तक भेल के पास करीब 2,000 एकड़ जमीन फालतू पड़ी है। रिपोर्ट में 1998 के मध्य प्रदेश राजस्व विभाग मंत्रालय के परिपत्र का हवाला दिया गया है। इसमें व्यवस्था है, कि तय उद्देश्य के लिए दी गई भूमि का संबंधित उपयोग नहीं होने पर राज्य शासन सार्वजनिक उपक्रम को दी गई जमीन को वापस ले सकती है,लेकिन अपने अधिकार का उपयोग करने की बजाए प्रदेश सरकार के मंत्री अतिरिक्त भूमि वापस पाने के लिए जब तब केंद्र सरकार की मनुहार करते रहे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भेल अपने कब्जे वाली जमीन की देखभाल भी नहीं कर पा रहा है और अब तक 200 एकड़ जमीन पर भूमाफिया ने कब्जा कर लिया है।
रिपोर्ट में जिस 200 एकड़ जमीन की बात कही गई है, इसका ज्यादातर हिस्सा अब रियल एस्टेट के लिहाज से महत्वपूर्ण हो गया है। भोपाल में बन रहे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के सामने भेल की जमीन पर भी लोगों ने अवैध कब्जा कर रखा है और यहां मकानों का निर्माण अब भी जारी है। एम्स के यहां आने कारण इलाके में जमीन की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ी हैं।
करीब दो दशक पूर्व राजधानी से ही सटे दो गांवों चांचेड़ और गनियारी की साढ़े चार सौ एकड़ जमीन जिले के राजस्व अधिकारियों की मिलीभगत से निजी भूमि में तब्दील हो गई। एसके भगत नामक व्यक्ति के पक्ष में जमीन का नामांतरण करने वाले अफसरों ने इस मामले में सीलिंग एक्ट तक का ध्यान नहीं रखा। मामला जब तक उजागर होता भगत जमीन बेच कर सपरिवार दूसरे राज्य में जा बसा। समीपस्थ जिला मुख्यालय होशंगाबाद में भी अतिक्रमण को लेकर कमोवेश यही हालात हैं। सूत्रों के मुताबिक, जिले के इटारसी शहर में ही ऐसे 114 मामलों का खुलासा हुआ है जहां 1985 से अक्तूबर, 2010 के बीच नजूल की जमीन रजिस्ट्री कर बेच दी गई। इटारसी शहर में नजूल शीट नंबर 6 और 3 के प्लॉट नंबर 3/1 रकबा 1,41,935 वर्ग फुट जमीन गलत तरीके से बेच दी गई।
नालियों को भी नहीं बख्शा
शासन-प्रशासन से गठजोड़ के चलते भू-माफिया से जुड़े लोगो ने तेजी से तरक्की की। इनके हौंसले इतने बुलंद है,कि अब वे शहर की सीवर लाइन व नालों को ही अतिक्रमण की चपेट में ले रहे हैं। ग्वालियर के मेवाती मोहल्ल जगनापुरा में ऐसी ही एक सीवर लाइन से अतिक्रमण हटवाने में वहां के नगर निगम प्रशासन को पसीना आ गया। अतिक्रमणकारी ने साढ़े तीन मीटर चौड़ाई वाली शहर की इस मुख्य सीवर लाइन को ही बंद कर इस पर कालोनी काट दी। इससे अतिक्रमण हटवाने पहुंचे नगर निगम अमले को बिल्डर के लठैतों ने धमकाने की कोशिश की लेकिन पुलिस की मौजूदगी से वे अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सके।
जानकारों के अनुसार, ग्वालियर में इस्लामपुरा, मोतीझील, सत्यनारायण की टेकरी, मरघट पहाड़ी, कैसर पहाड़ी ,लक्ष्मण तलैया कभी शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाने वाले इलाके थे। यहां की पहाड़ियों का नैसर्गिक सौंदर्य व हरियाली शहर के पर्यावरण को स्वच्छ रखने में मददगार था लेकिन कालांतर में इन पर बेजा कब्जे के चलते यह पहाड़ियां सीमेंट के जंगल में तब्दील होकर रह गई। हकीकत से वाकिफ होते हुए भी वाणिज्य कर विभाग इनकी रजिस्ट्रियां करता रहा और देखते ही देखते शहर में अनेक अवैध कालोनियां खड़ी होती रहीं। शहर में सक्रिय भू-माफिया ने क्षेत्र शान कहे जाने वाले ऐतिहासिक महत्व के किले को भी नहीं बख्शा। इसकी दीवारों व तलहटी में कि या गया अतिक्रमण ने किले की सुंदरता को दागदार कर डाला। चंद साल पहले मप्र राजस्व मंडल के एक अटपटे फैसले ने एक डेयरी संचालक को शहर की बेशकीमती 47 हेक्टेयर जमीन का मालिक बना दिया । इस भूमि की कीमत वर्तमान में दो सौ करोड़ से अधिक है।
जानकारों के अनुसार ,ग्वालियर पूर्व रियासत के तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने ग्वालियर डेयरी नामक एक कंपनी तैयार की थी। इसमें उनके सरदार माधवराव फालके और सरदार देवराज कृष्ण जाधव (डी.के. जाधव) के अलावा रियासत के प्रभावशाली लोग संचालक थे। 4जून 1942 को रियासत की करीब 15सौ 16 एकड़ जमीन 25 साल की लीज पर दी गई। अप्रैल 1979 में लीज की मियाद खत्म होने पर जिला कलेक्टर के आदेश पर सरकार ने जमीन वापस ले ली। कंपनी संचालक इस फैसले के खिलाफ राजस्व मंडल में गए और मंडल ने 20 मार्च 2008 ने सुप्रीमकोर्ट की गाइडलाइन को नजरअंदाज करते हुए कंपनी के पक्ष में फैसला सुना दिया। बाद में ग्वालियर प्रशासन ने जलालपुरा के पास 50 एकड़ जमीन अपने कब्जे में ले ली लेकिन शहर के महाराजपुरा इलाके की करीब 42 एकड़ जमीन पर अब भी कंपनी का कब्जा है। जिला मुख्यालय ही नहीं सरकारी जमीन पर अतिक्रमण का रोग शहर से लगे गांवों में भी फैल गया है। यहां का बहुचर्चित बैलागांव कांड इसकी मिसाल है।
रसूखदारों के आगे शासन इतना बेबस रहा ,कि गांव के पहुंच मार्ग पर हुए अवैध कब्जे को हटाने की बजाए अन्य जमीन को अधिग्रहीत कर नया रास्ता तैयार करवा दिया गया। ग्वालियर-चंबल संभाग में खनिजों का अवैध उत्खनन भी सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। हैं। मुरैना ,भिंड व संभाग के अन्य जिलों में मैदानी अमले पर आए दिन हमलों व अधिकारियों को धमकाने की वारदातें बढ़ी हैं। सूत्रों के मुताबिक, ग्वालियर संभाग के वन क्षेत्र जैसे बरई, पनिहार, धाटीगांव, तिघरा, सौंसा भदौली, छौडा आदि जंगल माफिया के शिंकजे में है। इन वन क्षेत्रो में खुलेआम ब्लास्ट कर पत्थर निकाला जा रहा है। लेकिन इस अवैध उत्खनन को रोकने के लिये कोई ठोस रणनीति नही वन विभाग नही बना पाया है।
रवि अवस्थी,भोपाल।
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